बहुत घातक है मारण, मोहन मंत्र की सिद्धि, जानिए महाभारत से क्या है जुड़ाव
मां काली तारा बहुत जल्द प्रसन्न होने वाली देवी हैं, लेकिन इनकी साधना सही तरीके से न की जाए, तो साधक का सर्वनाश भी हो सकता है। uplive24.com पर जानिए कि मारण, मोहन और वशीकरण मंत्र की साधना कैसे की जाती है और श्रीकृष्ण महाभारत के पहले किस देवी के यहां पांडवों को लेकर गए थे।
मां काली तारा (Maa Kali Tara) बहुत जल्द प्रसन्न होती हैं। वह अपने भक्तों पर मारण, मोहन, वशीकरण, स्तंभन और उच्चाटन जैसी दुर्लभ सिद्धियां भी सहज लुटा देती हैं। उनकी प्रचलित तरीके से पूजा करने में कोई दिक्कत नहीं। लेकिन, देवी की आराधना की एक और विधि है- उग्र तारा अघोर साधना। इस विधि को अमूमन तांत्रिक ही अपनाते हैं। इसमें जरा-सी चूक पर साधक का सत्यानाश तय है।
पूजा की दोनों विधियों में मारण, मोहन, वशीकरण, स्तंभन और उच्चाटन के अर्थ भी बदल जाते हैं। पहले जानते हैं कि शुद्ध भाव से देवी की आराधना (Devi Puja in Navratri) करने वालों के लिए इनका मतलब क्या होता है?
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मारण
मारण का भाव है अपने सबसे बड़े शत्रु क्रोध, मद, लोभ आदि का नाश, न कि किसी की हत्या का चिंतन। देवी के मंत्र के जाप (Devi Puja in Navratri) से शत्रु पक्ष की शक्ति क्षीण हो जाती है। उन्हें प्रकृति दंडित करती है। साधक को केवल देवी के मंत्र की उर्जा ग्रहण करते रहना चाहिए।
मोहन
मोहन का तात्पर्य है भगवती को प्रसन्न करना (Devi Puja in Navratri)। यदि वह साधक पर प्रसन्न हो गईं, तो फिर प्रकृति उसकी इच्छानुसार हर जगह साधक के लिए सहज वातावरण तैयार करती रहती हैं।
वशीकरण
इसके मंत्र की उर्जा से अपने मन को वश में किया जा सकता है। जिसने अपना मन जीत लिया, तो फिर वह हर किसी मन को जीतने की क्षमता पा ही लेता है।
स्तंभन
इसमें मंत्र के माध्यम से इंद्रियों को विषय विकारों की ओर जाने से रोका या स्तंभित किया जाता है। जो अपने विषय विकारों पर जीत हासिल कर लेता है, उसे हर क्षेत्र में सहज कामयाबी मिलती है। (Devi Puja in Navratri)
उच्चाटन
साधक इसमें मंत्र के द्वारा मोह, ममता आदि को त्यागकर मोक्ष के लिए प्रयास करता है। जिसने स्वयं को भौतिक जगत से अलग करके आध्यात्मिक जगत से नाता जोड़ लिया, तो फिर वह किसी भी क्षेत्र की परिस्थितियों से विचलित नहीं होता।
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वहीं, द्वेष भाव से आराधना करने वालों के लिए ये सारे अर्थ बदल जाते हैं। जैसे कि मारण का अर्थ किसी का अंत, मोहन का मतलब किसी को भी अपने मायाजाल में उलझाना, वशीकरण यानी किसी को भी अपने वश में करके अपने मनमुताबिक काम करा लेना, स्तंभन मतलब सही दिशा में जा रहे व्यक्ति को भटका देना। उच्चाटन का असर यह होता है कि पूजा-पाठ या अच्छे काम से मन एकदम उचाट हो जाता है यानी उस काम को करने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है।
यही वजह है कि उग्र तारा की आराधना (Devi Puja in Navratri) बहुत घातक बताई गई है। इसे किसी सिद्धि प्राप्त व्यक्ति की ही देखरेख में करने की सलाह दी जाती है। वहीं, अच्छे भाव से साधना करने वालों के लिए मोक्ष भी आसान हो जाता है। इतना ही नहीं, मनुष्य अपनी कुण्डलिनी को भी जागृत कर सकता है। काली तारा की आराधना स्त्री-पुरुष, बच्चा-बूढ़ा कोई भी कर सकता है।
मंत्रों का जाप (Devi Puja in Navratri) माला या बिना माला के भी किया जा सकता है। अगर साधक देवी के 24 लाख जप पूरे कर लेता है, तो उसकी वाणी सिद्ध हो जाती है यानी उसके मुख से निकलने वाली बात सच हो जाती है। लेकिन, यदि इस सिद्धि का दुरुपयोग किया गया, तो वह स्वतः नष्ट हो जाती है।
श्मशान में बना मंदिर
मां काली तारा का वास श्मशान में बताया गया है। मध्यप्रदेश में तीन मुखों वाली त्रिशक्ति माता का मंदिर तंत्र साधना के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध है। यह मंदिर शाजापुर ज़िले में लखुंदर नदी के किनारे स्थित है। यहां देशभर से साधु-संत और तांत्रिक अनुष्ठान के लिए आते हैं। यह मंदिर महाभारतकालीन है, जो श्मशान में बना है। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में विजय के लिए भगवान कृष्ण ने पांडवों से इस मंदिर में साधना करवाई थी।
चैत्र नवरात्रि में देवी के त्रिगुणात्मक स्वरूप के पूजन (Devi Puja in Navratri) का भी विधान है। नवरात्रि में नियमों का पालन विशेष रूप से करना चाहिए। इसे 'शक्ति तत्व जागरण अनुष्ठान' कहा जाता है। नवरात्रि ही एक ऐसा पर्व है, जिसमें देवी का आराधना से सब सिद्धियां पाई जा सकती हैं।
तारा देवी के स्वरूप के बारे में बताया जाता है कि वह एक पैर आगे किए हुए वीरपद से विराजमान हैं। वह घोररूपिणी, मुण्डमाला से विभूषित, लम्बोदरी, व्याघ्र चर्म पहने नवयुवती दिखती हैं। उनकी चार भुजाए हैं। दाएं ओर के हाथों में खड्ग और कैची होती है। वहीं, बाएं हाथों में कपाल और उत्पल धारण किए रहती हैं। इनकी जटाएं पिंगल वर्ण और तीनों नेत्र रक्तवर्ण हैं।
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देवी पूजा (Devi Puja in Navratri) के कठोर नियम
उग्र तारा अघोर साधना के नियम भी बड़े कठिन होते हैं। इसमें सबसे पहले गुरु मंत्र से हवन करके भस्म बनानी होती है। ग्रहण के दिन उस भस्म में सिंदूर और शुद्ध जल और इत्र घोलकर एक पिंड बनाया जाता है। यही पिंड मां तारा का प्रतीकात्मक यंत्र होता है। साधक पिंड से सिंदूर लेकर मस्तक पर तिलक करता है। फिर पिंड को लाल कपड़ा बिछाकर मिट्टी के बर्तन में स्थापित किया जाता है।
इस साधना में मंत्रों के साथ पूजन कर लाल पुष्प चढ़ाने होते हैं। शरीर पर कमर से ऊपर कोई भी सिला हुआ वस्त्र नहीं होना चाहिए। लाल धोती का उपयोग किया जाता है। बंद कमरे में दिगंबर अवस्था में पूजन को ज्यादा लाभकारी बताया जाता है। यह साधना ज्यादातर श्मशान में ही होती है।
साधकों को देवी का जाप सात्विक स्थान में बैठकर शुद्धता के वातावरण में करने की सलाह दी जाती है। मानसिक जाप या चलते-फिरते समय करने पर आधा फल मिलता है। अशुद्ध और गंदे वातावरण में जाप करने का फल नहीं मिलता। जाप मन में या उच्च स्वर में किया जा सकता है।
नास्तिकों के सामने नहीं पढ़ सकते मंत्र
नास्तिक लोगों के सामने मंत्र का उच्चारण वर्जित है। मंत्र जाप करने के लिए जमीन के ऊपर कोई पवित्र आसन जरूर बिछा होना चाहिए, नहीं तो जप की ऊर्जा पृथ्वी खींच लेती है। आसन लाल या पीले कपड़े का हो, लेकिन हिरण और सिंह आदि की खालों पर बैठकर कभी भी मंत्र जाप नहीं करना चाहिए, जो कि अघोरियों का मनपसंद आसन होता है।
यथासंभव पूर्व या उत्तर दिशा की ओर ही मुख करके बैठना चाहिए। सात्विक आहार करना चाहिए। मांस-मदिरा या किसी अन्य प्रकार के नशे का सेवन करने से मंत्र जाप का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। इसमें ब्रह्मचर्य का पालन करना भी जरूरी होता है। साधना के बाद पूजन की पूरी सामग्री नदी, तालाब या किसी कुएं में विसर्जित की जाती है। इस साधना में गड़बड़ी होने पर साधक का भयंकर अनिष्ट भी हो सकता है।
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